शिप्रा तट के ऊपरी भाग में स्थित भर्तृहरि गुफा उज्जैन का एक अत्यंत पवित्र और रहस्यमयी स्थान है। यह स्थल नाथ संप्रदाय के साधुओं का प्रमुख तपस्थल माना जाता है, जहाँ आज भी योगी और संन्यासी गहन साधना में लीन देखे जा सकते हैं। कहा जाता है कि गुफा के भीतर से कभी चारों धामों तक जाने वाले मार्ग हुआ करते थे, जो अब बंद हैं।
इतिहास और महत्ता
भर्तृहरि गुफा का नाम राजा भर्तृहरि के नाम पर पड़ा — जो उज्जैन के प्रख्यात सम्राट, महान योगी, और संस्कृत साहित्य के अमर कवि थे।
राज-पाट त्यागकर उन्होंने यहीं तपस्या की और आत्मज्ञान प्राप्त किया। उनके द्वारा रचित “श्रृंगार शतक”, “नीति शतक” और “वैराग्य शतक” आज भी भारतीय काव्य के शिखर माने जाते हैं।
गुफा के भीतर एक संकरे मार्ग से प्रवेश किया जाता है। अंदर गहराई में राजा भर्तृहरि की समाधि तथा उनके भतीजे गोपीचंद की मूर्ति विराजमान है। दीवारों पर प्राचीन शिल्प और भर्तृहरि के पंजे का चिन्ह आज भी विद्यमान है — ऐसा कहा जाता है कि तपस्या भंग करने हेतु इंद्र द्वारा फेंकी गई शिला को भर्तृहरि ने अपने हाथों के बल रोक लिया था।
आध्यात्मिक कथा
गुरु गोरखनाथ जी के शिष्य बनने के बाद भर्तृहरि ने गहन साधना और कठोर परीक्षाएँ दीं। उन्होंने काम, क्रोध, लोभ और अहंकार जैसे विकारों पर विजय प्राप्त की।
गुरु गोरखनाथ ने उनकी निष्ठा, समर्पण और वैराग्य की परीक्षा अनेक बार ली — किंतु भर्तृहरि हर बार स्थिर, शांत और दृढ़ रहे।
उनकी कथा यह सिखाती है कि गुरु की आज्ञा, संयम और तपस्या ही आत्मोद्धार का मार्ग हैं।
वर्तमान स्वरूप
आज भर्तृहरि गुफा न केवल एक ऐतिहासिक स्थल है, बल्कि आध्यात्मिक साधना का जीवंत केंद्र भी है।
यहाँ आने वाले श्रद्धालु गुफा के अंदर जाकर राजा भर्तृहरि की समाधि के दर्शन, दीपदान और शिप्रा स्नान करते हैं।
पास ही स्थित गढ़कालिका मंदिर और कालियादेह महल के दर्शन से यह यात्रा और भी पवित्र हो जाती है।
