क्षिप्रा नदी

क्षिप्रा नदी

श्री शीप्रा नदी भी गंगा नदी की तरह पवित्र एवं पापों का नाश करने वाली नदी है। इसके तट पर कुछ दिनों तक रहने के दौरान स्नान आदि किया जाए तो मनुष्य संर्पूण पापों से मुक्त हो जाता है। शिप्रा नदी तो सर्वत्र पुण्यमयी है। यह ब्रहमहत्या आदि पापों का नाश करने वाली है।

कालिदास अकादमी

कालिदास अकादमी

यह संस्था काठी रोड पर स्थित है। इसकी स्थापना उज्जैन के महाकवि एवं नाट्य लेखक कालिदास पर शोध करने की दृष्टि से हुई है। इसमें प्रतिवर्ष देवोत्पथापनी एकादशी से सात दिवस का कालिदास समारोह मनाया जाता है।

के .डी पेलेस

के .डी पेलेस

यह स्थान सिद्धनाथ से करीब तीन किलोमीटर और स्टेशन से करीब 11 किलोमीटर दूरी पर स्थित है। यहां पर सूर्य देवता का मंदिर था एवं इस स्थान के निकट ही कालियादेह ग्राम भी स्थित है। इस स्थान को पुराणों में ब्रहमकंुड भी कहा जाता है। चार सौ वर्ष पूर्व नसीरूद्दीन खिलजी ने मूल स्थान को तोडकर कालियादेह महल बनवाया था।  यह महल प्राचीन महलों में से एक है। यह स्थान अब एक जीर्ण स्थान में परिवर्तित हो चुका है।

जंतर मंतर (वेद शाला )

जंतर मंतर (वेद शाला )

खगोलशास्त्र के अध्ययन का प्रारंभ कब से हुआ, इसका निर्णय इतिहास के क्षेत्र के बाहर है। जिस प्रकार मानव उत्पत्ति का आरंभ-काल अनिर्णीत है, उसी प्रकार आकाशस्थ ज्योति पुंजों की ओर मानव की जिज्ञासा कब जाग्रत हुई, इसका समय निश्चित करना असंभव है। ऋग्वेद संसार की प्राचीनतम रचना है। इस ग्रंथ में खगोलीय घटनाओं का उल्लेख अनेक ऋचाओं में वर्णित है।

धार्मिक, ऐतिहासिक एंव ज्योतिर्विज्ञान के क्षेत्र में उज्जैन का प्रमुख स्थान है। इसी नगरी में सूर्य-सिद्धांत की रचना हुई थी। वराहमिहिर जैसे प्रकाण्ड विद्वान इसी नगरी के निवासी थे। भारतीय ज्योतिष के सिद्धांतकाल में उज्जैन की स्थिति ठीक कर्क रेखा एवं मुख्य मध्यान्ह रेखा पर स्थित होने के कारण भारतीय ज्योतिष में कालगणना का मुख्य केन्द्र माना गया है। यहाँ के ज्योतिर्लिंग का नाम महाकालेश्वर है। इससे ऐसा विदित होता है कि महाकलेश्वर की स्थापना होने के पहले से ही उज्जैन की कालज्ञान संबंधी कीर्ति प्रसिद्ध है। यहाँ की रेखा मुख्य मानने का उल्लेख शक पूर्व 300 से 400 तक रखे हुए आद्य सूर्य-सिद्धांत ग्रंथ में आया है। प्राय: उस काल से ही उज्जैन को हिन्दुस्तान का ग्रीनविच होने का सम्मान प्राप्त है।

शिलालेख के अनुसार इस वेधशाला का निर्माण सन 1719 में महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय ने करवाया था। महाराजा जयसिंह उच्च कोटि के ज्योतिष मर्मज्ञ भी थे। भारतीय ज्योतिष में आ रही त्रुटि दग् प्रत्यय नहीं थी। उसमें सुधार करने हेतु उन्होंने वेधशालाओं का निर्माण करवाया। उनके द्वारा निर्मित वेधशालाएँ उज्जैन के अलावा जयपुर, मथुरा, काशी एवं दिल्ली में विद्यमान हैं।

उज्जैन की वेधशाला लगभग दो सौ वर्ष तक भग्नावस्था में पड़ी रही। सन 1905 में बम्बई में अखिल भारतीय ज्योतिष सम्मेलन हुआ। उसमें ग्वालियर शासन की ओर से सान्दीपन व्यास, सिद्धांत वागीश, स्व. नारायणजी व्यास एवं गणक चूड़ामणि स्व. गोविंद सदाशिवजी आप्टे भेजे गये थे। इन्होंने प्रचलित पंचांग में संशोधन हेतु यह प्रस्ताव रखा कि एक करणग्रंथ तैयार किया जाये और वह कार्य प्रत्यक्ष वेधोपलब्ध उपकरणों द्वारा किया जाये तथा वेध मध्य रेखा स्थित उज्जैन की वेध-शाला द्वारा लिया जाये। इस प्रस्ताव की स्वीकृति के पश्चात स्वर्गीय महाराजा माधव राव सिंधिया ग्वालियर से वेधशाला के सुधार हेतु आग्रह किया गया। महाराजा ने अनुरोध स्वीकार कर जयपुर के विद्वान स्वर्गीय गोकुलचन्दजी भावन के निरीक्षण में इस वेधशाला का पुनरुद्धार सन 1923 में करवाया तथा वेध आदि कार्यों के लिए आर्थिक व्यवस्था की। 21 मार्च 1930 से श्री गोविन्द सदाशिव आप्टे के निर्देशन में कार्य प्रारंभ हुआ। वेधशाला पर लिये गये वेधों के आधार पर आप्टेजी ने एक करण ग्रंथ ‘ सर्वानन्द लाघव’ संस्था से प्रकाशित किया। इसके द्वारा बनाये गये ग्रह दृग प्रत्यय होते हैं।

सन 1942 से संस्था से अंग्रेजी में एक ‘ एफेमेरीज’ अर्थात् ‘ दृश्यग्रह स्थिति पंचांग ‘ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। सन 1964 से एफेमेरीज में आवश्यक नागरी लिपि का प्रयोग भी किया जा रहा है। इस एफेमेरीज के ग्रह वेध तुल्य होते हैं। इसमें नक्षत्र काल, ग्रहों के भोग, शर एवं क्रांति प्रतिदिन के मान से दिये जाते हैं। सूर्योदय, सूर्यास्त एवं चन्द्रोदय की सारणियाँ भी दी गई हैं। चन्द्र का राशि प्रवेश काल, चन्द्र से ग्रहों का योगकाल, दृष्टि विषय ग्रहों से ग्रहों का योगकाल, ग्रहों की युति एंव प्रतियुति कालीन समय एवं क्रान्त्यन्तर ग्रहण दशमलग्न सारणी, अक्षांश 60 से 340 तक लग्न कोष्टक एवं लघुगुणक कोष्टक भी दिये जाते हैं।

यह वेधशाला, उज्जैन का एक महत्वपूर्ण पर्यटक केन्द्र है, यहाँ खगोलीय ज्ञान प्रत्यक्ष रूप में प्राप्त किया जा सकता है। खगोल एवं ज्योतिष के छात्र, प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करने यहाँ आते रहते हैं।

वेधशाला में निम्नांकित यंत्र बने हैं :–

1. सम्राट यंत्र

2. नाड़ी वलय यंत्र

3. दिगंश यंत्र

4. भित्ति यंत्र

5. शंकु यंत्र

(1) सम्राट यंत्र : इसकी ऊँचाई 22 फुट 4 इंच है तथा जीने की लम्बाई 52 फुट 8 इंच है। यह जीना ठीक दक्षिणोत्तर है। इसके दोनों ओर पूर्व एवं पश्चिम की ओर जो वृत्तपाद हैं, उनकी त्रिज्या 9 फुट डेढ़ इंच है। इसका जीना पृथ्वी के अक्ष के समानान्तर होने के कारण ठीक उत्तर ध्रुव की दिशा होकर अक्षांश 23.11′ के बराबर कोण बनाता है। जीने पर खुदे अंकों से ग्रह, नक्षात्रादिकों की क्रांति का ज्ञान होता है। वृत्त पादों पर घंटे, मिनट एवं 20 सेकेंड के चिन्ह अंकित हैं। जीने की छाया वृत्त पादों पर जहाँ गिरती है वह उस समय का स्थानीय स्पष्ट काल (Local time) दर्शाता है। स्थानीय स्पष्ट काल से भारतीय समय (Indian standard time) जानने के लिए, यंत्र के पूर्व एवं पश्चिम की ओर अंग्रेजी और हिन्दी में संशोधन सारणी लगी हुई है।

(2) नाड़ीवलय यंत्र : यह यंत्र सम्राट यंत्र के समीप ठीक दक्षिण में बना हुआ है। इसके उत्तर एवं दक्षिण दोनों ओर दो वृत्त बने हुए हैं जो विषुवत् वृत्त के समानान्तर हैं। इस यंत्र से ग्रह, नक्षत्रादि दक्षिण या उत्तर गोलार्द्ध में हैं, इसका यथार्थ ज्ञान हो जाता है। सूर्य के सायन मेषारंभ से सायन तुलारंभ तक सूर्य का प्रकाश इस यंत्र के उत्तर भाग के वृत्त पर पड़ता है और सायन तुलारम्भ सायन मेषारम्भ तक के दक्षिण भाग के वृत्त पर सूर्य का प्रकाश पड़ता रहता है। यह काल 23 सितम्बर से 21 मार्च तक होता है। प्रत्येक वृत्त के केन्द्र पर वृत को समकोणिक एक कीला लगा हुआ है। कीले की परछाई से, वृत्त पर खुदे अंकों से स्थानीय समय (L.T. या लोकल टाइम) ज्ञात होता है। स्थानीय समय में संशोधन सारणी से संशोधन करने पर भारतीय समय (I.S.T. या इंण्डियन स्टेन्डर्ड टाइम) ज्ञात होता है। कीले की सीध में ठीक उत्तर दिशा में ध्रुवतारा दिखाई देता है।

(3) दिगंश यंत्र : यह यंत्र दो समकेन्द्रीय दीवारों का बना हुआ है। बाहरी दीवार सुरक्षा के लिए बनाई गई है। भीतरी दीवार पर अंशों के अंक खुदे हुए हैं। भारतीय गणना के अनुसार पूर्व एवं पश्चिम बिन्दु पर 00 अंश और दक्षिणोत्तर बिन्दुओं पर 900 अंश के अंक खुदे हैं। इस यंत्र के मध्य में 4 फुट 4 इंच के स्तम्भ पर एक 4′ लम्बे लोहे के नल पर एक वृत्ताकार प्लेट जिसमें 00 से 3600 के अंक खुदे हुए हैं, लगी हुई है। इस प्लेट के कीले पर एक तुरीय यंत्र ( जो कि 00 से 900 वृत्तपाद के आकार का है) लगाकर ग्रह, नक्षत्रों के उन्नतांश एवं प्लेट से दिगंश ज्ञात किये जा सकते हैं।

(4) याम्योत्तर भित्ति यंत्र : यह एक दीवार के आकार का बना हुआ यंत्र है। यह ठीक दक्षिणोत्तर दिशा में बनाया गया है। इसकी ऊँचाई 24 फुट 3 इंच एवं चौड़ाई 24 फुट 7.5 इंच है। इस दीवार के पूर्वी भाग में ऊपर दोनों कोनों पर दो कीले गड़े हुए हैं, जिनका पारस्परिक अंतर 20 फुट 2 इंच है। कीलों को केन्द्र मानकर दो वृत्त पाद संगमरमर पत्थर के बने हैं एवं वृत्त पादों पर 00 से 900 तक के अंक खुदे हुए हैं। सूर्य जब इस भित्ति पर आता है, तब स्थानीय मध्यान्ह काल होता है। इसी समय यंत्र में लगे हुए कीलों में एक डोरी लगाकर सूर्य के याम्योत्तर लंधन के समय कीले की छाया की सहायता से यह डोरी यंत्रांकित वृत्त पाद में जहाँ स्पर्श करे, वह अंक तात्कालिक सूर्य के याम्योत्तर वृत्तीय नतांश होता है। इन नतांशों से स्थानीय अक्षांश, सूर्य की क्रांति, वर्षमान आदि प्रत्यक्ष रूप से ज्ञात किये जा सकते हैं।

(5) शंकु यन्त्र : यह यंत्र एक गोलाकार चबूतरे का बना हुआ है। इसके केन्द्र में एक 4 फुट ऊँचे लोहे का नल लगा हुआ होता है। इस यंत्र का निर्माण संस्था के प्रथम अधीक्षक श्री गो.स.आप्टे के निर्देशन में सन 1937 में करवाया गया था। इस यंत्र पर 00 से 3600 के अंक खुदे हुए हैं। इस पर उत्तर एवं पूर्व दिशा में दो पट्टियाँ लगी हुई हैं। इस यंत्र पर 7 रेखाएँ खिंची हुई हैं जो क्रमश्: महीने एवं सूर्य की राशि का ज्ञान करवाती हैं। इस यंत्र से दिशा, समय, दिनमान का घटना-बढ़ना एवं संक्रांतियों का ज्ञान प्रत्यक्ष रूप में होता है। 22 दिसम्बर को मकर संक्रांति के दिन सबसे छोटा दिन, 21 मार्च एवं 23 सितम्बर को समान दिन-रात एवं 22 जून को कर्क संक्रांति के समय सबसे बड़ा दिन होता है।

दूरवीक्षण यन्त्र : संस्था में 3 इंच व्यास का एक दूरवीक्षण यंत्र भी है। इससे चन्द्र, मंगल, शुक्र की कलाएँ, गुरु एवं उसके उपग्रह, शनि एवं उसका वलय देखे जा सकते हैं। ग्रहों को देखने के इच्छुक व्यक्तियों का समूह बनाकर संस्था प्रधान से दिनांक निश्चित करवाना आवश्यक है।

प्लेनेटेरियम : संस्था में एक प्लेनेटेरियम भी है जिससे कमरे में आकाश में स्थित नक्षत्रों एवं तारों को देखा जा सकता है।

मौसम विभागीय कार्य : यहाँ पर मौसम विभाग का कार्य भी होता है, जिसमें प्रात: 8.30 एवं सायंकाल 5.30 बजे प्रतिदिन तार द्वारा सूचना भोपाल भेजी जाती है। मौसम विभाग के यंत्रों में वायु दिशा सूचक यंत्र, वायु गति मापक यंत्र, आर्द्रता मापी यंत्र, उच्चतम-न्यूनतम तापमापी और स्व-चालित वर्षा मापक यंत्र इस वेधशाला में स्थापित हैं।

भर्तहरी गुफा

भर्तहरी गुफा

शिप्रा तट के ऊपरी भाग में भर्तृहरि की गुफा है। एक संकरे रास्ते से गुफा के अंदर जाना पड़ता है। कहते हैं गुफा से चारों धाम जाने के लिए मार्ग है, जो अब बंद है। यह नाथ संप्रदाय के साधुओं का प्रिय स्थान है और योग साधना के लिए उत्तम माना जाता है। कई साधु यहां बरसों से साधना करते हुए देखे जा सकते हैं। यह स्‍थान गढ़कालिका मंदिर के पास स्थित है। इन गुफाओं के बारे में कहा जाता है कि यहीं पर भर्तृहरी रहा करते थे और तपस्‍या करते थे।

भर्तृहरी महान विद्वान और कवि थे। उनके द्वारा रचित श्रृगांरशतक, वैराग्‍यशतक और नीतिशतक बहुत प्रसिद्ध हैं। इनका संस्‍कृत साहित्‍य में बहुत ऊंचा स्‍थान है। भर्तृहरि की गुफा ग्यारहवीं सदी के एक मंदिर का अवशेष है, जिसका उत्तरवर्ती दोर में जीर्णोध्दार होता रहा ।

राजा भर्तृहरि ने राज-पाठ छोडकर इस स्थान पर तपस्या कि थी इसलिए इसका नाम उनके नाम से प्रसिद्ध है। गुफा के भीतर गोपीचंद्र की मूर्ति विराजमान है। यह स्थान भी शीप्राजी के तट पर स्थित है। इस गुफा में राजा भर्तृहरि की समाधि भी बनी हुई है। इस गुुफा में प्रवेश करने के लिए एक संकरा रास्ता है। कहा जाता है कि श्री भर्तृहरि की तपस्या से भयभीत होकर इंद्र ने उनकी तपस्या भंग करने के लिए शिला को उनकी ओर फेंका था परंतु भर्तृहरि जी ने उसको अपने पंजंे के सहारे एवं योगबल से उसे वहीं स्थित कर दिया। श्री भर्तृहरि के हाथ के पंजे का चिन्ह आज भी यथावत है।

 राजा भर्तृहरि से पास 360 पाकशास्त्री थे भोजन बनाने के लिए। वर्ष में केवल एक एक की बारी आती थी। 359 दिन वे ताकते रहते थे कि कब हमारी बारे आये और हम राजासाहब के लिए भोजन बनायें, इनाम पायें लेकिन भर्तृहरि जब गुरू गोरखनाथजी के चरणों में गये तो भिक्षा माँगकर खाते थे।
एक बार गुरू गोरखनाथजी ने अपने शिष्यों से कहाः ”देखो, राजा होकर भी इसने काम, क्रोध, लोभ तथा अहंकार को जीत लिया है और दृढ़निश्चयी है।”
शिष्यों ने कहाः ”गुरूजी ! ये तो राजाधिराज हैं, इनके यहाँ 360 तो बावर्ची रहते थे। ऐसे भोग विलास के वातावरण में से आये हुए राजा और कैसे काम, क्रोध, लोभरहित हो गये !” गुरू गोरखनाथ जी ने राजा भर्तृहरि से कहाः ”भर्तृहरि ! जाओ, भंडारे के लिए जंगल से लकड़ियाँ ले आओ।”
राजा भर्तृहरि नंगे पैर गये, जंगल से लकड़ियाँ एकत्रित करके सिर पर बोझ उठाकर ला रहे थे। गोरखनाथ जी ने दूसरे शिष्यों से कहाः ”जाओ, उसको ऐसा धक्का मारो कि बोझा गिर जाय।” चेले गये और ऐसा धक्का मारा कि बोझा गिर गया और भर्तृहरि भी गिर गये। भर्तृहरि ने बोझा उठाया लेकिन न चेहरे पर शिकन, न आँखों में आग के गोले, न होंठ फड़के।
गुरू जी ने चेलों से कहाः ”देखा ! भर्तृहरि ने क्रोध को जीत लिया है।” शिष्य बोलेः ”गुरुजी ! अभी तो और भी परीक्षा लेनी चाहिए।”
थोड़ा सा आगे जाते ही गुरुजी ने योगशक्ति से एक महल रच दिया। गोरखनाथ जी भर्तृहरि को महल दिखा रहे थे। ललनाएँ नाना प्रकार के व्यंजन आदि लेकर आदर सत्कार करने लगीं। भर्तृहरि ललनाओं को देखकर कामी भी नहीं हुए और उनके नखरों पर क्रोधित भी नहीं हुए, चलते ही गये। गोरखनाथजी ने शिष्यों को कहाः “अब तो तुम लोगों को विश्वास हो ही गया है कि भर्तृहरि ने काम, क्रोध, लोभ आदि को जीत लिया है।” शिष्यों ने कहाः “गुरुदेव एक परीक्षा और लीजिये।”
गोरखनाथजी ने कहाः “अच्छा भर्तृहरि ! हमारा शिष्य बनने के लिए परीक्षा से गुजरना पड़ता है। जाओ, तुमको एक महीना मरूभूमि में नंगे पैर पैदल यात्रा करनी होगी।”
भर्तृहरिः “जो आज्ञा गुरूदेव !”
भर्तृहरि चल पड़े। पहाड़ी इलाका लाँघते-लाँघते मरूभूमि में पहुँचे। धधकती बालू, कड़ाके की धूप… मरुभूमि में पैर रखो तो बस सेंक जाय। एक दिन, दो दिन….. यात्रा करते-करते छः दिन बीत गये। सातवें दिन गुरु गोरखनाथजी अदृश्य शक्ति से चेलों को भी साथ लेकर वहाँ पहुँचे।
गोरखनाथ जी बोलेः “देखो, यह भर्तृहरि जा रहा है। मैं अभी योगबल से वृक्ष खड़ा कर देता हूँ। वृक्ष की छाया में भी नहीं बैठेगा।”
अचानक वृक्ष खड़ा कर दिया। चलते-चलते भर्तृहरि का पैर वृक्ष की छाया पर आ गया तो ऐसे उछल पड़े मानो अंगारों पर पैर पड़ गया हो ! ‘मरुभूमि में वृक्ष कैसे आ गया ? छायावाले वृक्ष के नीचे पैर कैसे आ गया ? गुरु जी की आज्ञा थी मरुभूमि में यात्रा करने की।’ – कूदकर दूर हट गये। गुरु जी प्रसन्न हो गये कि देखो ! कैसे गुरु की आज्ञा मानता है। जिसने कभी पैर गलीचे से नीचे नहीं रखा, वह मरुभूमि में चलते-चलते पेड़ की छाया का स्पर्श होने से अंगारे जैसा एहसास करता है।’ गोरखनाथ जी दिल में चेले की दृढ़ता पर बड़े खुश हुए लेकिन और शिष्यों की मान्यता ईर्ष्यावाली थी।
शिष्य बोलेः “गुरुजी ! यह तो ठीक है लेकिन अभी तो परीक्षा पूरी नहीं हुई।”
गोरखनाथ जी (रूप बदल कर) आगे मिले, बोलेः “जरा छाया का उपयोग कर लो।” भर्तृहरिः “नहीं, गुरु जी की आज्ञा है नंगे पैर मरुभूमि में चलने की।” गोरखनाथ जी ने सोचा, ‘अच्छा ! कितना चलते हो देखते हैं।’ थोड़ा आगे गये तो गोरखनाथ जी ने योगबल से कंटक-कंटक पैदा कर दिये। ऐसी कँटीली झाड़ी कि कंथा (फटे पुराने कपड़ों को जोड़कर बनाया हुआ वस्त्र) फट गया। पैरों में शूल चुभने लगे, फिर भी भर्तृहरि ने ‘आह’ तक नहीं की।
तैसा अंम्रित1 तैसी बिखु2 खाटी। तैसा मानु तैसा अभिमानु।
हरख सोग3 जा कैं नहीं बैरी मीत समान। कहु नानक सुनि रे मना मुकति ताहि तै जान।।
1.अमृत 2. विष 3 हर्ष-शोक
भर्तृहरि तो और अंतर्मुख हो गये, ’यह सब सपना है और गुरुतत्त्व अपना है। गुरु जी ने जो आज्ञा की है वही तपस्या है। यह भी गुरुजी की कृपा है’।
गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परं मंगलम्।
अंतिम परीक्षा के लिए गुरुगोरखनाथ जी ने अपने योगबल से प्रबल ताप पैदा किया। प्यास के मारे भर्तृहरि के प्राण कंठ तक आ गये। तभी गोरखनाथ जी ने उनके अत्यन्त समीप एक हरा-भरा वृक्ष खड़ा कर दिया, जिसके नीचे पानी से भरी सुराही और सोने की प्याली रखी थी। एक बार तो भर्तृहरि ने उसकी ओर देखा पर तुरंत ख्याल आया कि कहीं गुरुआज्ञा का भंग तो नहीं हो रहा है ? उनका इतना सोचना ही हुआ कि सामने से गोरखनाथ आते दिखाई दिये। भर्तृहरि ने दंडवत प्रणाम किया।
गुरुजी बोलेः ”शाबाश भर्तृहरि ! वर माँग लो। अष्टसिद्धि दे दूँ, नवनिधि दे दूँ। तुमने सुंदर-सुंदर व्यंजन ठुकरा दिये, ललनाएँ चरण-चम्पी करने को, चँवर डुलाने को तैयार थी, उनके चक्कर में भी नहीं आये। तुम्हें जो माँगना हो माँग लो।” भर्तृहरिः ”गुरूजी ! बस आप प्रसन्न हैं, मुझे सब कुछ मिल गया। शिष्य के लिए गुरु की प्रसन्नता सब कुछ है।”
भगवान शिव पार्वतीजी से कहते हैं- आकल्पजन्मकोटीनां यज्ञव्रततपः क्रियाः। ताः सर्वाः सफला देवि गुरुसंतोषमात्रतः।।
‘हे देवी ! कल्पपर्यन्त के, करोड़ों जन्मों के यज्ञ, व्रत, तप और शास्त्रोक्त क्रियाएँ – ये सब गुरुदेव के संतोषमात्र से सफल हो जाते हैं।’
“गुरुजी ! आप मुझसे संतुष्ट हुए, मेरे करोड़ों पुण्यकर्म और यज्ञ, तप सब सफल हो गये।”
“नहीं भर्तृहरि ! अनादर मत करो। तुमने कुछ-न-कुछ तो लेना ही पड़ेगा, कुछ-न-कुछ माँगना ही पड़ेगा।”
इतने में रेती में एक चमचमाती हुई सुई दिखाई दी। उसे उठाकर भर्तृहरि बोलेः ”गुरूजी ! कंथा फट गया है, सुई में यह धागा पिरो दीजिए ताकि मैं अपना कंथा सी लूँ।”
गोरखनाथजी और खुश हुए कि ’हद हो गयी ! कितना निरपेज्ञ है, अष्टसिद्धि-नवनिधियाँ कुछ नहीं चाहिए। मैंने कहा कुछ तो माँगो तो बोलता है कि सुई में जरा धागा डाल दो। गुरु का वचन रख लिया।’
अनपेक्षः शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथः। सर्वारम्भपरित्यागी यो मद् भक्तः स मे प्रियः।।
‘जो पुरुष आकांक्षा से रहित, बाहर भीतर से शुद्ध, दक्ष, पक्षपात से रहित और दुःखों से छूटा हुआ है – वह सब आरम्भों का त्यागी मेरा भक्त मुझको प्रिय है।’
(गीताः 12.16)
‘कोई अपेक्षा नहीं ! भर्तृहरि तुम धन्य हो गये ! कहाँ तो उज्जयिनी का सम्राट और कहाँ नंगे पैर मरुभूमि में ! एक महीना भी नहीं होने दिया, सात-आठ दिन में ही परीक्षा से उत्तीर्ण हो गये।’
अभी भर्तृहरि की गुफा और गोपीचंद की गुफा प्रसिद्ध है।
कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य-जीवन में बहुत सारी ऊँचाइयों को छू सकते हैं।

महर्षि सांदीपनि आश्रम

महर्षि सांदीपनि आश्रम

महर्षि सांदीपनि आश्रम शीप्रा नदी पर स्थित गंगा घाट के समीप स्थित है। भगवान श्रीकृष्ण एवं उनके सखा सुदामा ने यहां पर महर्षि सांदीपनि जी से शिक्षा ग्रहण कि थी। इस स्थाप पर एक कुंड भी स्थित है जिसे गोमती कुंड के नाम से जाना जाता है। इस स्थान पर गुरू संादीपनिजी, कृष्ण, बलराम एवं सुदामा की मनोहारी मर्तियां भी विराजमान है।